दर्द का कोई पैमाना कँहा होता है !
ये वो मेहमान है जिसका जाना कँहा होता है !!
भूल तो जाता मैं अपने माँझी को !
मगर जँहा मै ऐसा ऐब कहाँ होता है !!
यूँ तो मिल भी गयीं हैं कई किश्तियाँ अपने साहिल से !
खैर ऐसा वाक्या अपने साथ कँहा होता है !!
इज़ाज़त-ए-तहज़ीब-ए-ज़ेहन हमें ना थी काफ़िर !
वरना दीवाना हम सा कँहा होता है !!
कतरा के निकल जाते हैं हमें देख के वो !
जो कहते थे कभी दिन हमसे शुरू होता है !!
यूँ तो ओढ ली है बेशर्मी की चादर हमने !
पर खुदा से कुछ भी छुपा कँहा होता है !!
हँसी है दर्द का एक और मिज़ाज़ !
ये तो हम जैसा है …… जुदा कँहा होता है !!
Thursday, 16 October 2008
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यूँ तो मिल भी गयीं हैं कई किश्तियाँ अपने साहिल से !
ReplyDeleteखैर ऐसा वाक्या अपने साथ कँहा होता है !!
bahut achcha likhtey hain aap.
ap ke blog par ek hi pravishti abhi tak??
अल्पना जी नमस्ते,
ReplyDeleteक्या करें अल्पना जी हमारा किस्सा भी कुछ-ज्कुछ आप के जैसा ही है।ये तो नई थी पर अब जो POST करूगाँ वो पुरानी ही होंगी,भाव तो हर जगह उमडते रहते है……पर हर वक़्त कलम कहाँ होती है…खैर जल्द ही समय निकाल कर अपनी भावनाओं को रूप-रंग दूगां…शीघ्र ही आप को दिखाई देंगी
शुभरात्रि :-)