Thursday, 16 October 2008

दर्द

दर्द का कोई पैमाना कँहा होता है !
ये वो मेहमान है जिसका जाना कँहा होता है !!

भूल तो जाता मैं अपने माँझी को !
मगर जँहा मै ऐसा ऐब कहाँ होता है !!

यूँ तो मिल भी गयीं हैं कई किश्तियाँ अपने साहिल से !
खैर ऐसा वाक्या अपने साथ कँहा होता है !!

इज़ाज़त-ए-तहज़ीब-ए-ज़ेहन हमें ना थी काफ़िर !
वरना दीवाना हम सा कँहा होता है !!

कतरा के निकल जाते हैं हमें देख के वो !
जो कहते थे कभी दिन हमसे शुरू होता है !!

यूँ तो ओढ ली है बेशर्मी की चादर हमने !
पर खुदा से कुछ भी छुपा कँहा होता है !!

हँसी है दर्द का एक और मिज़ाज़ !
ये तो हम जैसा है …… जुदा कँहा होता है !!